Tuesday, September 15, 2009

वो रात काटनी कोई आसान भी न थी

मैं हिज्र के अज़ाब से अनजान भी न थी,
पर क्या हुआ की सुबह तलक जान भी न थी
आने में घर मेरे तुझे जितनी झिझक रही,
इस दरजा तो मैं बेसर-ओ-सामान भी न थी
इतना समझ चुकी थी मैं उसके मिज़ाज को,
वो जा रहा था और मैं हैरान भी न थी
दुनिया को देखती रही जिसकी नज़र से मैं,
उस आँख में मेरे लिए पहचान भी न थी
रोती रही अगर तो मैं मजबूर थी बहुत,
वो रात काटनी कोई आसान भी न थी

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